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संस्कृति और परंपरा By विदुषी प्रधान | Connected Indian

Culture and Tradition

Written By Vidushi Pradhan

नमस्ते!मेरा नाम विदुषी प्रधान है।   मै आपको एक रोचक विषय के बारे में बताना चाहती हूं।

             संस्कृति और परंपरा

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचरने , कार्य करने के स्वरूप में अंतर्निहित होता है। संस्कृति का शब्दार्थ है-" उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरंतर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन पद्धति, रीति - रिवाज, रहन - सहन , आचार - विचार नवीन अनुसंधान और आविष्कार , जिससे मनुष्य  पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा होता है तथा सभ्य बनता है।सभ्यता संसकृति का अंग है।सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भे है। भौतिक उन्नति शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अत्रप्त ही बने रहते है।इन्हे संतुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते है। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते है। सौंदर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वस्तु अनेक कलाओ को उन्नत करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक "सम्यक कृति" संस्कृति का अंग बनती है।

मानव जीवन में संस्कृति का महत्व-

संस्कृति जीवन के निकट से जुड़ी है। यह कोई ब्राह्म वस्तु नहीं है और ना ही कोई आभूषण है जिसे मनुष्य प्रयोग कर सके। यह वह गुण है जो हमें मनुष्य बनता है। संस्कृति के बिना मनुष्य है नहीं रहेंगे। संस्कृति परंपराओं से, विश्वासो से, जीवन की शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से, भौतिक पक्ष से, निरंतर जुड़ी है। यह हमें जीवन जीने का तरीका सिखाती है। मानव की संस्कृति का निर्माता है साथ ही संस्कृति मानव को मानव बनाती है।

 संस्कृति का एक मौलिक तत्व है, धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति।हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए, साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए जिनसे "अंत: सांस्कृतिक वआत्तालाप" कहा जाता है। विश्व जैसे - जैसे जुड़ता चला जा रहा है , हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे है और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे है। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है।सह - अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न सस्कृतियों और विश्वासो के सह - अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करे, अच्छा होगा कि हम अन्य संस्कृतियों को भी जाने और साथ ही अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझे। हम दूसरी संस्कृतियों के विषय में कैसे चर्चा कर सकते हैं जब तक हम अपनी संस्कृति के मूल्यों को भी भली प्रकार ना समझ ले।

संस्कृति की विशेषताएं -

१) संस्कृति लोगो के समूह द्वारा बाटी जाती है- एक सोच या विचार या कार्य की संस्कृति कहा जाता है यदि यह लोगों के समूह के द्वारा माना जाता या अभ्यास में लाया जाता है।

२) संस्कृति परिवर्तनशील होती है- ज्ञान, विचार और परंपराए नयी संस्कृति के साथ अध्यतन होकर जुड़ते जाते है।समय के बीतने के साथ ही किसी विशिष्ट संस्कृति में सांस्कृतिक परिवर्तन संभव होते जाते है।

३) संस्कृति हमें अनेक प्रकार के स्वीकृति वव्यव्हारो के तरीके प्रदान करती है- यह बताती है कि कैसे एक कार्य को संपादित किया जाना चाहिए, कैसे एक व्यक्ति को समुचित व्यवहार करना चाहिए।

परंपरा - 

   परंपरा से तात्पर्य उन सत्यो से है जो अति प्राचीन काल में अभिव्यक्त हुए थे और जो शाश्वत सत्य है। परंपरा का ऐतहासिक अर्थ ऐतिहासिक दर्शन पर आधारित है। सब राष्ट्र का जन्म और पालन पोषण अपनी - अपनी परंपरा के अनुकूल है। धर्मानुकूल आचरण के लिये, सदाचार के लिए, प्रसिद्ध पूर्वजों का जीवन चरित सभी राष्ट्र में आर्दश माना जाता है। जितने प्रकार की कलाओं का आरंभ और विकास हुआ, परंपरा में वह भी शामिल है। ज्ञान - विज्ञान के इस अथाह समुद्र को इस दीर्घकाल के भीतर कितने ही देवासुरों ने मथा, कितने ही रत्न निकाले, यह सब भी परंपरा के अन्तर्गत है।

हिन्दू परंपरा में कई विशेषताएं हैं जो अन्य प्राचीन परम्पराओं से बिल्कुल भिन्न है। उसमे मन्वन्तर और राजवंशों का वर्णन, जो कुछ है वह भारतवर्ष या आर्यावर्त के भीतर का है।हमारी सबसे बड़ी परंपरा देश की सर्वांगीण पवित्रता की भावना है। अनेक विद्याओं का लोप हो जाने पर भी साहित्य में यत्र- तत्र उसकी चर्चा मोजूद है, जिससे परंपरा के नष्ट हो जाने पर भी उनके अस्तित्व का पता लगता है। धनुर्वेद इसका अच्छा उदाहरण है, जिसके कई बड़े - बड़े ग्रंथ हाल ही में विशेष खोज करने पर मिल गए है। कभी - कभी परंपरा के नष्ट हो जाने पर आवश्यतानुसार उसका पुनारंभ भी हो जाता है।जैसे कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है -

          एवं परंपरा प्राप्तम इम्म राजशर्यो विद:। स काले नेह महता योगो नष्ट: परं तप।

परंपरा से प्राप्त यह अमूल्य धन हिन्दू धर्म के साहित्य में निहित है। ज्ञान, सदाचार, कलाएं जो कुछ साहित्य के विविध रूपों में विद्यमान है, उनके लिए हम प्राचीन विद्वानों और ऋषि मुनियों के कृतज्ञ है। उन्हीं की कृपा से आज हमको श्रुति,स्मृति,वेदांग, चौसत महाविद्या और कलाओं के मूल तथ्यों का ज्ञान हो सकता है अथवा कम से कम उनके अस्तित्व का पता लग सकता है। यह समस्त साहित्य देव वाणी अथवा संस्कृत में प्रकट किया गया है। परन्तु ज्ञान की परंपरा में किसी विशेष भाषा या उसके विशेष रूप का बंधन नहीं है। भगवान बुद्ध और जैन आचार्यों ने  पाली, मगधी आदि प्राकृत भाषाओं का आश्रय लिया और उनकी परंपरा भी आज तक चली आ रही है।हिंदी, बंगला, मराठी, गुजराती, उड़िया, तेलुगु,कन्नड़,मलयालम,पंजाबी, आसमी आदि आजकल की प्रचलित प्राकृत भाषाएं हैं, जिनमें संत, महात्मा, सुधारकों ने सदाचार की शिक्षाएं देकर अपनी परंपरा को स्थिर रखा है। इन परंपरागत शिक्षाएं अधिकांश में लेखबद्ध है। वह सब की सब हिन्दू परंपरा के अंग है और हिन्दू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति की पोषक है।

" व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके ब्राह्म स्वरूप की विशालता में नहीं,अंतर को उत्कृष्ट त्यागव्रतियुक्त बनाने में है।व्यक्ति के साथ त्याग बलिदान की अभूतपूर्व परंपरा जुड़ी हुई है। यह संस्कृति को धन्य बनती है।"

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